शमशान के सन्नाटे में नीरवता ,
नि:स्तब्धता
को भंग करके आती हुई पदचापें,
रुदन ,क्रंदन ,सिसकियाँ ,हिचकियाँ
के साथ आती परछाईयाँ ,
तरह तरह से ज़िंदगी के अंत हैं ,
यहाँ पहुँच कर तो सभी संत हैं
कैसे कौन जानेगा, कौन है कौन ?
लोग अनुत्तरित ,प्रश्न हैं मौन ....
नि:स्पंदन वजूद, नि:स्पंदन काया ,
मोह तो तब तक था ,जब तक थी माया ,
ज्ञान का आदित्य चहुँ ओर है छाया ,
शमशान के सन्नाटे में, सन्नाटा है छाया ।
कुछ पलों के लिए ही सही ,
ज़िंदगी ठहरी... अब है,
खामोशी, नीरवता ,स्तब्धता तो तब है ,
पानी ,हवा ,सांस रूकी हुई जब है |
ज़िंदगी है तो ये सब है ,
कौन जाने किसकी मौत खड़ी कब है ?
शमशान के सन्नाटे में ..
अपनी बारी का इंतजार करते लोग ,
न जाने कैसे -कैसे ज़िंदगी को रहे हैं भोग ...
निश्छल चिता पर लेटा शव ,
निश्चल मासूम मन के साथ शव को घेरे लोग,
शव को घेरे भीड़ में चुपचाप खड़े लोग ,
और न जाने क्या-क्या लगातार बोलता डोम,
जिंदगियों को ज़िंदगी के लिए आख़िरी करना है होम ...
दो पल के लिए ही सही ज़िंदगी ठहरी अब है ,
किसी के दिमाग में विचार ये अब है ,
न जाने किसकी मौत खड़ी कब है ??
शमशान के सन्नाटे में,
यही मन में भाया ,
क्या इसी का नाम मोह था ,
इसी का नाम माया ?
शमशान के सन्नाटे में ......
आत्मकथ्य:- यह कविता शमशान में बैठकर लिखी गयी है
शनिवार, 23 जनवरी 2010
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